शाकुन्तला का पुत्र आश्रम मे कण्व ऋषी तथा अन्य विद्वानों की छत्र -छाया मे पल कर बड़ा हुआ। उस बालक की अनेक योगयताये देख कर महाषि कण्व को ये विश्वास हो गया की ये बालक युवराज होने के लायक है और उन्होंने ये निश्चय किया कि इस बालक का आगे का पालन-पोषण राजा दुष्यंत की देख-रेख मे महलों मे होना चाहिये ताकि वो राज्य का काम-काज सीख कर भविष्य मे अपने राज्य तथा प्रजा की रक्षा कर सके। इस सोच के साथ महर्षि कण्व ने शकुन्तला को आदेश दिया कि वो अपने पुत्र को उसके पिता राजा दुषयनत की राजधानी मे ले जा कर उनहे सौंप दे। महार्षि कण्व के आदेश अनुसार शकुन्तला अपने पुत्र तथा आश्रम के कुछ निवासियों तथा साधू संतों के साथ राजा दुष्यन्त के महल के लिए प्रस्थान करती है।

कण्वाश्रम से ऋिष कण्व की आज्ञा के अनुसार शाकुनतला अपने पुत्र के साथ प्रस्थान करना तथा उनका राजा दुष्यंत के साथ अन्तत: मिलना तथा राजा या उनके पति द्वारा उनको स्वीकार करने के कई रचनात्मक वर्णन है। कुछ एतिहासिक है जो ग्रन्थो मे लिखे गये है, कुछ कवियों तथा लेखकों द्वारा चित्रित है तथा कुछ आम जन मानस के बीच चर्चित हैं। इन सब मे से सबसे रोचक तथा भावनात्मक वर्णन महाकवि कालीदास ने अपनी रचना “अभिज्ञान शाकुन्तलम् ” मे किया है। महाकवि कालीदास ने अपनी कल्पना को पंख लगा कर इतिहास की इस वास्तविक घटना को एक नया तथा रोचक रूप दिया है। महाभारत जो कि इस देश और विश्व का सबसे प्राचीन तथा सबसे बड़ा ग्रन्थ है जिस मे एक लाख श्लोक है मे भी शाकुन्तला का राजा दुष्यन्त से मिलन के के सम्बन्ध मे लिखा हुआ है।

महाभारत जो कि विश्व का सबसे प्राचीन ग्रंथ है मे दुष्यंत और शाकुन्तला के गान्धर्व विवाह, भरत के जन्म तथा उनके राज्याभिषेक के सम्बन्ध मे लिखा गया है। महाभारत के अनुसार दुष्यन्त एक योग्य तथा बलवान राजा था जो कि अपनी प्रजा मे अत्याधिक लोकप्रिय भी था। एक दिन राजा अपनी सेना के साथ किसी गहन वन मे जा पहुँचे। वनों पार करने के उपरान्त वो एक नदी के तट पर पहुँच गये। वहॉ उन्होंने देखा की अनेक ऋषी -मुनी नदी के किनारे आसन लगा कर ध्यान मगन बैठे हैं। सामने उन्हे एक आश्रम दिखा।पूछने पर पता लगा कि वो नदी मलिनी नदी है तथा आश्रम कण्व ऋषी का है। अपनी सेना के अधिकारियों तथा मन्त्रियों को आश्रम के बाहर छोड़ कर राजा दुष्यन्त आश्रम मे प्रवेश करते है।

महाभारत ग्रन्थ के अनुसार शकुन्तला अपने पुत्र को उसका हक़ दिलाने के लिए दुष्यन्त की राजसभा मे जाती है और कहती है कि “राजन ये आप का पुत्र है तथा अब आप इसे युवराज बनाइये तथा अपनी दी हुई प्रतिज्ञा पूरी करे। ” ये सुन कर दुष्यन्त कहता है कि तू कौन है और इस तरह सभा मे आकर मेरी पत्नी होने का स्वाँग कर रही है और मुझे बदनाम कर रही है। तुम्हारी बातों पर कौन विश्वास करेगा। पर शकुन्तला अपनी बात पर अडिग रही और कहा कि मैंने शायद पूर्वजन्म मे कोई पाप किया होगा कि मेरी मॉ मेनका मुझे जन्म मे ही छोड़ कर चली गई और अब आप मुझे छोड़ रहे है। आप भले मुझे छोड दे पर अपने पुत्र को मत छोड़िये क्योंकि आप इसे अपनाये या नही पर ये मेरा पुत्र ही इस सम्पूर्ण पृथ्वी पर शासन करेगा।

यह कह कर शकुन्तला राजा दुष्यन्त की सभा से चल पड़ती है। महाभारत ग्रन्थ के अनुसार राजा तथा सभा मे उपस्थित सभी जनों को सम्बोधित करते हुए आकाशवाणी होती है ” हे राजन शकुन्तला का अपमान मत करो उसकी बात सर्वथा सत्य है तथा तुम ही इस बालक के पिता हो। तुम्हें हमारी आज्ञा मान कर एेसा करना चाहिए। तुम्हारे भरण – पोषण के ही कारण ही इस बालक का नाम ” भरत” होगा। आकाशवाणी सुन कर दुष्यन्त आन्नद से भर गये तथा उन्होंने कहा कि ” आप सब ने अपने कानों से देवताओं की वाणी सुनी। मुझे पता था कि ये मेरा पुत्र है पर केवल शकुन्तला के कहने पर अगर मै इसे अपना लेता तो सारी प्रजा मुझ पर संदेह करती इस कारण मैंने शकुन्तला से ऐसा व्यवहार किया।

त्तपशच्यात राजा दुष्यन्त ने अपने पुत्र को अपने राज्य का युवराज घोषित कर उसका अभिषेक किया। कुछ अन्य कथाओं के अनुसार शाकुन्तला तथा दुष्यन्त के मिलन का वर्णन कुछ भिन्न तरीक़े से वर्णित है। पर इस सब मे से सबसे रोचक वर्णन महाकवि कालीदास द्वारा अपनी रचना अभिझान शाकुन्तलम् मे किया है। महाकवि कालीदास ने इस महाकाव्य की रचना कर इस महान राष्ट् भारतवर्ष का निर्माण करने वाले चक्रवर्ती सम्राट भरत तथा उनसे सम्बन्धित सभी जनों को एक व्यक्तिगत पहचान दे कर इस देश के एतिहास मे अंकित कर दिया। महाकवि कालीदास के महाकाव्य के अनुसार शाकुन्तला, राजा दुष्यन्त की प्रतीक्षा मे उनकी यादों मे खोई रहती थी और आश्रम की गतिविधियों मे उसका ध्यान पहले जैसे नही रहता था।

 

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